Friday, May 8, 2015

ग़रीब की अभिलाषा





"चाह नहीं मैं अंबानी सा सूट पहन इतराऊँ,
चाह नहीं मैं बन अडानी,संग साहेब घूम आऊँ,
चाह नहीं झूठे वायदों में दिन-दिन जकड़ा जाऊँ,
चाह नहीं ऊँचे बंगलों में बैठ-बैठ इठलाऊँ ,
मुझे सोने देना हे बंगले वालों, उस पथ पर एक,
जिस पथ पर 'न' गुज़रें,तुम्हारे कपूत अनेक.,"


- © प्रशांत गुप्ता





Thursday, March 14, 2013

.....फिर से मुझको बहला दो माँ.....





फिर से मुझको बहला दो माँ, वो दुनिया फिर दिखला दो माँ..

वो कल कल बहते झरने , वो ची ची करती चिड़ियाँ,

वो झिलमिल करते तारों को , आँचल में फिर छुपला दो माँ 

फिर से मुझको बहला दो माँ, वो दुनिया फिर दिखला दो माँ..


वो सौंधी-सौंधी मिटटी का घर , वो खट्टी-खट्टी अमिया के पेड़,

वो मीठी मीठी बेरों को , फिर से ज़रा खिला दो माँ ,

फिर से मुझको बहला दो माँ, वो दुनिया फिर दिखला दो माँ..


वो तीखी-तीखी 'लाला' की टिकिया, वो सतरंगी बर्फी 'अब्दुल' की,

वो उलझे-उलझे बुड्ढी के बाल, फिर से ज़रा सुलझा दो माँ ..

फिर से मुझको बहला दो माँ, वो दुनिया फिर दिखला दो माँ..


दिखलादो माँ फिर से वो दुनिया,जब घर छोटा दिल बड़ा होता था ,

लगती जब थी चोट किसी 'राम' को , दर्द 'रहीम' को होता था।

फिर से मुझको बहला दो माँ, वो दुनिया फिर दिखला दो माँ..



-प्रशांत गुप्ता 

Wednesday, July 18, 2012

...मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ...





मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

वो पुरानी दराज़ में, कुछ पीले कागजों में..
धुंधले पड़े शब्दों को, खंगोलता रहा ..

मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

वो एक सौंधी सी खुशबू का ख़त , वो एक सूखा गुलाब का फूल ..
वो हर एक लम्हा उन दिनों का , नज़रों में डोलता रहा ..

मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

वो कुछ टिकटें कटी फटी सी, वो इक उसके बालों का पिन ..
 वो उसका एक पुराना रुमाल, साँसों में रस घोलता रहा ..

मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

वो रूठने मनाने के दौर, वो आकर चले जाने का दौर,
वो उसके चले जाने का ग़म , आंसुओं में बोलता रहा ..

मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

वो घंटों रहना साथ-साथ, वो मीलों चलना साथ-साथ,
आँखों के हर एक आंसू को, पलकों से तौलता रहा ..

मैं कल सारी रात..यादें टटोलता रहा ..

 -  © प्रशांत गुप्ता 

5 :30 A.M. 19/07/2012.


Thursday, December 15, 2011

...मेरा क्या है .. मुझे तो आदत है ...



ऐ ख़ुदा ! कि कितना बदनसीब हूँ मैं..

तू जितना दूर है मुझसे ..उतना करीब हूँ मैं...

कमा के देख लिया दुनिया का हर कागज़ ..

लेकिन मोहब्बत में ..तुझसे ग़रीब हूँ मैं.. 

चल लूट ले मुझको .. मैंने जो भी कमाया है ..

कि लेने इश्क के बदले, मेरी जां को तू आया है ..

सुकूं ले ले , नींद ले ले, भले फिर भी, 

उस तस्वीर को न ले... जो मेरे तन का साया है.. 

ज़रा सा एक करम करना, अगर कर सके जो तू , 

मेरे सीने के ऊपर एक घाव है ,अगर वो भर सके जो तू ..

मुझे मालूम है.. नहीं करता यकीं तू एहसानों में , 

मुझे जीना है तेरी यादों में , अगर ये कर सके जो तू ..

तेरा हर आंसू है एक मोती , तेरी हर आह कहानी है .. 

मेरा क्या है ? मेरी आँखों में तो बस नमकीन पानी है ..

तेरा हर बाल है रेशम , तेरा तो नूर है रोशन, 

मेरी छोटी सी एक दौलत, वो तेरी इक निशानी है..







 - © प्रशांत गुप्ता - 15-12-2011

Monday, August 15, 2011

अभी तो मैं गुलाम हूँ ..



अभी तो मैं गुलाम हूँ ..

नहीं हूँ मैं आज़ाद अभी .. नहीं हूँ मैं आबाद अभी..

नहीं मनाऊंगा जश्ने-ए-आज़ादी ..नहीं लगाऊंगा तिरंगा छाती पर ..

नहीं पहनूंगा नया कुर्ता , नहीं गाऊंगा गीत देश के ..

नहीं खाऊंगा लड्डू-पेड़े , नहीं बोलूँगा जय हिंद ..

अभी तो मैं गुलाम हूँ ..

गुलाम हूँ मैं, सुरसा जैसी बढती महंगाई का ..

गुलाम हूँ मैं, दिन-बर-दिन गिरती कमाई का ..

गुलाम हूँ मैं, इन सारे भ्रष्ट नेताओं का ..

गुलाम हूँ मैं, गरीबी 
से घिरी फिज़ाओं का  ..


गुलाम हूँ मैं, पेट पर पड़ती चोट का ..

गुलाम हूँ मैं, एक हरे रंग के नोट का ..

गुलाम हूँ मैं, ठंढे पड़ते चूल्हे का ..
गुलाम हूँ मैं, खेतों में गुमते पूले  का ..


गुलाम हूँ मैं, पल-२ बढ़ते आतंक का ..

गुलाम हूँ मैं, जातिवाद के डंक का ..

अभी तो मैं गुलाम हूँ ..

नहीं हूँ मैं आज़ाद अभी .. नहीं हूँ मैं आबाद अभी..







-प्रशांत गुप्ता 

15/08/2011

+91-9925143545






Tuesday, October 26, 2010

शर्म से कहो तुम 'पत्रकार' हो !!


इनसे मिलिए, ये हैं 'अजय श्रीवास्तव' 'एबीसी चैनल' से , यह कहकर मेरे मित्र ने एक सार्वजनिक समारोह में मेरा एक समूह से परिचय कराया,वह समूह, जो हम दोनों के पहुँचने से पहले हंसी और ठहाकों से गूँज रहा था , मेरे परिचय के दो शब्द सुनकर सबके चेहरों पर न जाने कैसे भाव आ गए , मैंने एक हलकी सी कृत्रिम मुस्कान और दिखावटी आत्मविश्वास के साथ हाथ बढ़ाया, सामने वाले ने भी बिना किसी भाव के मेरा हाथ बड़ी उदासीनता से छु लिया, मानों ज़बरदस्ती औपचारिकता निभानी पड़ गयी हो, बाकि लोग मुझे चिड़ियाघर से आये किसी अपरिचित जानवर की तरह ऊपर से नीचे तक घूरने लगे. "अच्छा , तो आप एबीसी चैनल में हैं ? पत्रकार हैं ..? भाई बुरा न मानियेगा लेकिन मैंने तो ये सारे हिंदी न्यूज़ चैनल देखना ही छोड़ दिया है , क्या वाहियात ख़बरें दिखाते रहते हैं .. आखरी दिन दुनिया का..भागो आई लाल मौत .. मेरे बच्चे तो डर ही जाते थे ! भाई मैंने तो अब श्रीमती जी के सीरियल्स देखना शुरू कर दिया है , कम से कम वो लोग शुरू होने से पहले ये तो बता देते हैं की इस कहानी के सारे पात्र काल्पनिक हैं और इनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं है " तभी दूसरे सज्जन जिनके हाथों में कोई रंगीन पेय था , जिसकी रंगीनियत उनके चेहरे पर भी झलक रही थी , बोले " अरे यार ये साले सब बिके हुए हैं #@#*+=# , मेरा बस चले तो गोली ही मार दूँ सबको , भाई आप बुरा न मानियेगा आप तो नौकरी करते हैं , ख़बरें दिखाना तो दिल्ली वालों का काम है " एक के बाद एक सबने, अपने -अपने तरीके से न्यूज़ चैनलों को जी भर कर कोसा, मै वहां  खड़ा-खड़ा ज़बरदस्ती बस खींसे निपोर रहा था उनके साथ , और ये भी सोच रहा था की ये संजीव ने भी कहा लाकर शराबियों के बीच में फंसा दिया? कैसे खिसकुं यहाँ से ? फ़ोन हाथ में था , कान में लगा कर निकल लिया धीरे से, सबके ये दर्शा के कि कोई फ़ोन आ गया है , मन में आया कि तुरंत निकल भागूं..फिर सोचा खाना तो खा लूँ , आज तो टिफिन वाले को भी मना कर दिया है, और फिर संजीव कॉलेज का दोस्त है , बहन की शादी से ऐसे गया तो बुरा मान जायेगा, लेकिन सच कहूँ तो खाने का सोच के ही रुका मैं उस दावत में.

जैसे तैसे एक कोना पकड़ के थोड़ी देर फ़ोन पर बात करने का नाटक करता रहा , संजीव अभी भी वही खड़ा हुआ था उन लोगों के साथ, शायद मेरी वकालत कर रहा था, वो लोग भी सहमती की मुद्रा में से दिख रहे थे, मैंने बारातियों के साथ भीड़ में गुम होना ही मुनासिब समझा, खाना - वाना खाके जब में वह से निकला तो मन में विचारों की आंधी सी कौंध रही थी , बहुत ही निम्न महसूस कर रहा था मैं आज, सोच रहा था कि क्यूँ आया ऐसे पेशे में? पिताजी की बात अब शायद सही दिख रही थी, कॉम्पटीशन की तैय्यारी कर ली होती तो आज शायद गुड्डू भैया की तरह मै भी इंफोसिस या विप्रो जैसे किसी कंपनी में ९ से ५ की इज्ज़तदार नौकरी कर रहा होता लेकिन मुझे तो कल्पनाओं में उड़ना ही ज़्यादा पसंद था, सिनेमा देखना शुरू से ही बहुत पसंद था मुझे, ये वह सिनेमा ही तो था जिसने मुझे आई आई टी की कोचिंग से विमुक्त करके , मेरे अन्दर के क्रांतिकारी को जगा दिया था, कुछ बहुत बड़ा करने का जूनून और फिर सबको 'हनक' दिखाने का 'कीड़ा' जाग गया था..मुझे पता नहीं क्यूँ हमेशा से ऐसा लगता था मै 'आम' नहीं 'ख़ास' ज़िन्दगी जीने के लिए बना हूँ, सबसे अलग दिखने की , कुछ अलग करने की चाह हमेशा से ही थी मुझमें.. और सबसे आसान कैरियर मुझे 'पत्रकारिता' ही लगा जिसमें ज़्यादा पढने-लिखने की माथामारी नहीं होती, केवल 'ज्ञानबाज़ी' से ही दुकान चलती है, और इज्ज़त मिलती है सबसे ज़्यादा , मोहल्ले ,दोस्तों और रिश्तेदारों में 'हनक' अलग से.

लेकिन अब परिस्थतियाँ वैसी नहीं हैं , अधिकांश युवावर्ग जोकि दिल्ली और आस-पास के मीडिया इंस्टिट्यूट रुपी 'दड़बों' में ठुंसे पड़े हैं , वह सभी मीडिया की इस अंधी रौशनी की चका-चौंध की तरफ खिंचे चले आये हैं, सभी को लगता है कि , वह भी आगे चल कर कोई 'बरखा दत्त , प्रभु चावला , पंकज सरदेसाई ' बन कर छा जायेंगे, पैसा तो मिलेगा ही , समाज में इज्ज़त मुफ्त में मिलेगी, 'आम' से 'ख़ास' बन जायेंगे , सोनी टीवी के 'इंडियन आइडल' की तरह, सबको 'ख़ास' बनने का 'शॉर्ट-कट' ही चाहिए बस.

आज वास्तविकता बिलकुल उलट है इसके, पत्रकारों को आज लोग समाज के उस वर्ग की श्रेणी में रखने लगे हैं , जिसमें  हमारे देश के भ्रष्ट नेता , सरकारी अफसर और भ्रष्ट पुलिसवाले बरसों से विराजमान हैं, आप किसी महफ़िल में चले जाओ तो लोग या तो शांत हो जाते हैं या बातों का विषय बदल देते हैं, आपके पीठ पीछे लोग हँसते हैं और पानी पी-पी कर गालियाँ देतें हैं सो अलग, मैं स्पष्ट रूप से ये तो नहीं कह सकता की इसका ज़िम्मेदार कौन है, लेकिन कैमराधारियों के अर्थवादी माई-बापों का इसमें बहुत बड़ा योगदान है, दिल्ली तो बदनाम थी ही , अब इन 'व्यापारियों' ने उसमे चार-चाँद और लगा दिया हैं.  


ये लेख मेरे अंतर्मन में उद्वेलित विचारों की भड़ास है, अभी बीते कुछ महीनो या फिर यूँ कहें कुछ एकाध सालों से मुझमें उफनता आत्मविश्वास का ज्वालामुखी बुझ सा गया है, कलम और कैमरे की लड़ाई में मैं अपने आप को पिसता हुआ सा महसूस कर रहा हूँ, मेरे वह पुराने क्रांतिकारी विचारों और जनता के बीच मिलते सम्मान वाले दिन अब बस एक मीठी सी याद बन कर रह गए हैं. अब तो बस जब किसी मजदूर बस्ती में या झुग्गी में जाना होता है, तो ही अपने आप को किसी 'सितारे' जैसा महसूस करता हूँ, झुग्गियों में कैमरे की प्रति वही जिज्ञासा,डर या सम्मान अभी भी बाकी है , अब इन तीन विकल्पों में से सही विकल्प आपको चुनना है , मैंने तो बस लिखा दिया.

(ये कहानी वास्तविक जीवन की घटना पर आधारित है , पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं ;) 

-प्रशांत गुप्ता 

+91-9925143545

Thursday, September 2, 2010

लघुकथा ..एक गुमनाम 'पत्रकार'







मई- जून की चिलचिलाती और खाल को कचोटती हुई गर्मी.. कानों को फाड़ता हुआ गाड़ियों का शोर , जो कभी धीमा होता तो कभी कान के अन्दर  घुस कर, दिमाग को झनझना देता I नथुनों में घुसता हुआ पेट्रोल और डीज़ल का मिश्रित धुआं I 

शहर की दौड़ती- भागती इस सड़क के दूसरी ओर एक २६-२७ साल का औसत कद-काठी का युवक, जो सड़क के इस पार आने के लिए कभी कदम बढाता तो कभी दनदनाती हुई टैम्पो और बस के डर से फिर पीछे खींच लेता I सफ़ेद शर्ट, जोकि नील लगाने की वजह से, सफ़ेद थी या नीली ? इसका फैसला करना थोड़ा मुश्किल लग रहा है I कमर पे टंगी काले रंग की पैंट जो सुबह -सुबह के काले आकाश की तरह सफ़ेद रंग में घुलती सी जान पड़ रही थी I बहुत जद्दोजहद करने के बाद आखिर वो शख्स मौत को चकमा देकर सड़क के इस पार आ ही जाता है I 

भट्टी की तरह तपती सड़क ...तपिश को और बढ़ाती गर्म और धूल भरी हवा I युवक सड़क के इस पार आकर साइन बोर्ड के नीचे की थोड़ी छाँव में अपने आप को ढकने की कोशिश में लग जाता है, लेकिन सर पे रखे सूरज की वजह से सर का कुछ हिस्सा ही ढक पाता  है I थोड़ी सांस लेने के बाद फिर उसकी आँखों में वही हलचल नाचने लगती है, और सड़क के दाहिनी और न जाने किसको खोजता हुआ ? नज़रें दौड़ाने लगता है I

आइये हम इस युवक के अंतर्मन से ही इसकी कहानी को जानने की कोशिश करते हैं...

अभी तक नहीं आई १२ नंबर? कहीं निकल तो नहीं होगी ? बड़ी मुश्किल से आज विनय जी ने टाइम दिया है .. कपडे तो सही हैं..दाहिने जूते की सिलाई थोड़ी सी खुल गयी है, लेकिन थोड़ा अंगूठा दबा के चल लूँगा .. लेकिन आज विनय जी को इम्प्रेस कर देना है बस किसी तरह.. फाइल में सारी रिपोर्टें हैं की नहीं ? 'दैनिक' में पाठक कोने में छापे सारी कटिंग हैं की नहीं? फिर से चेक कर लेता हूँ ज़रा .. 

तभी तूफ़ान की तरह पीली सफ़ेद पुती हुई बस जोकि एक तरफ से झुकी होने की वजह से अपंग सी जान पड़ रही थी, दनदनाते हुए सड़क पे आ धमकी, ठसा ठस भरी हुयी I  एक खिड़की से पांच-पांच लोगों के सर ऐसे झाँक रहे थे जैसे मुर्गी के दड़बे में मुर्गियां ठूंस दी जाती हैं I  आगे और पीछे हैंडिल पर लोग सावन के झूलों की तरह झूल रहे थे I  मैंने दया प्रार्थी नज़रों से हैंडीलों पे झूलते लोगों की तरफ देख कर  नज़रों ही नज़रों में जगह देने की गुहार लगाई, लेकिन सबके चेहरे ऐसे कठोर हो गए जैसे किसी राजा से उसकी सत्ता मांग ली गयी हो, अंत में, मरता क्या न करता किसी तरह से बस के हैंडिल के एक सिरा तो मेरे हाथ आ ही गया, बस ने भी गति पकड़ ली, कुछ सेकंड हवा में झूलने के बाद मैंने पैर भी जमा लिए .. अहहहा.. बस के चलने के साथ ही माथे और भौवों पे जमा हुआ पसीना ठंडा सा महसूस होने लगा, थोड़ा थोड़ा बहते हुए होटों पे आ गया और नमक चखा गया I 

बस में खड़े होने के साथ ही साथ मुझे कमर में घुसी फाइल की भी रह-रह कर चिंता हो रही थी I हाथ से तो टोह नहीं सकता था, इसलिए अपनी कमर  को मेरे पीछे लदे व्यक्ति को हल्का रगड़ के टोहा, पता नहीं मेरी इस हरकत का उस व्यक्ति को क्या सन्देश गया होगा? लेकिन इन सबकी फिकर कहाँ थी मुझे आज ... मन में मिश्रित भावनाएं हिलोरें मार रही थीं..थोड़ा सा डर, थोड़ा-थोड़ा रोमांच , थोड़ी सी अनजानी सी ख़ुशी और कहीं कोने में घुसा हुआ आत्मविश्वास . लेकिन कुछ भी हो .. मुझे आज तो अपनी लेखन और पत्रकारिक क्षमता से विनय मिश्रा जी को तो इम्प्रेस कर देना है, दुबे जी से फोन तो करा दिया था I दुबे जी ने तो बोला ही था "अरे यार मिश्रा तो मेरा चेला है चेला .. मै एक बार कह दूँ न तो कुर्सी से उठे न वो.., तुम बस जाना और कहना, मुझे सरसइयां वाले दुबे जी ने भेजा है, फिर देखना " I

फ़ोन पे तो बड़े ही नम्र तरीके से बात करी थी विनय जी ने .. आज तो काम बन ही जायेगा, फिर मैं दिखा दूंगा मोहल्ले के सारे लड़कों को, जो मुझे कमज़ोर और बेबस समझते हैं, शरीर से नहीं तो क्या हुआ ..? मै अपने आप को कलम से बलवान करूँगा, जब सबको पता चलेगा कि मैं शहर के सबसे बड़े अखबार का 'रिपोर्टर' बन गया हूँ, तो सब मुझसे इज्ज़त से पेश आयंगे I मालिक मकान जो हर बार किराया न बढ़ाने पर माँ को मकान खाली करने की धमकी देता रहता है  और आये दिन उसका बेटा अपने दोस्तों को बुला कर ऊपर  जो हमारे घर की तरफ ताका करता है ,उसका भी मुंह चुप हो जायेगा I बहन को कॉलेज के लिए बस पकड़ने के लिए चौराहे पर छोड़ने के समय लोग जैसे मुझे और बहन को घूरते हैं, फिर मैं भी उनको जमके घूर दिया करूँगा..

पिताजी अगर आज होते तो मैंने ये सेल्समैन की नौकरी न करके 'जर्नालिस्म' की पढाई कर ली होती, फिर शायद किसी बड़े मीडिया संस्थान में लग जाता I लेकिन २४ नंबर वाले पप्पू ने तो कुछ भी नहीं किया था .. हाई स्कूल में तो मेरे साथ ही था , फेल होने के बाद उसके विधायक पिताजी ने उसको कहीं बाहर भेज दिया,२-३ साल बाद आया तो बोला कि "बाहर से इंटर करके आया हूँ," घिस -पिट के बी. ए. निकाला था उसने, लेकिन उसके पिताजी ने 'सेटिंग ' करके उसको चैनल में लगवा दिया है, आज तो निकल पड़ी है उसकी, दिन भर ओबी में घूमा करता है, बड़े-बड़े पुलिस वालों और नेताओं के साथ उठना बैठना है उसका आज-कल . . काश मै भी ...!

"बड़ी सड़क बड़ी सड़क"..., अचानक इस तीखी सी आवाज़ ने मुझे सपनों की दुनिया से बहार ला पटका, और मुझे ध्यान आया यहीं तो है 'दैनिक ' का ऑफिस.. पैरों को हवा में झुला कर दौड़ने लगा , ज़मीन छूते ही पैर भी दौड़ने लगे .. बहुत तेजी से पैर चलाने के बाद भी मैं  बस को हरा नहीं पाया और दोनों हाथ छूट गए.. लड़खड़ाते हुए घिसट सा गया सड़क पर..जल्दी से उठ कर कमर में लगी फाइल  को ढूंडा .. शुक्र है , वो वहीँ जमीं थी. दोनों हाथों की हथेलियों में से उगते सूरज की लालिमा जैसे अन्दर की खाल बाहर झांकने लगी थी, मैंने दोनों हाथों को अपनी कमर में रगड़ के साफ़ किया और फाइल को निकाल कर आगे की तरफ चल पड़ा I 

कुछ दूर चलने के बाद मेरी मंज़िल आ गयी.. शहर के सबसे बड़े अखबार 'दैनिक' का ऑफिस .. बड़ा सा काला  गेट, बाहर खड़े सिक्यूरिटी गार्ड, गेट के किनारे डब्बे से दिखने वाला सिक्यूरिटी गार्ड का चैंबर. "किस्से मिलना है ?" "जी, विनय मिश्रा जी से" "आपको बुलाया है?" "जी हाँ, आज २:३० का समय दिया था " "आज तो प्रेस के मालिक लोग आये हुए हैं,आज का टाइम दिया है आपको?" "जी आप इंटरकॉम पे बात करके पूछ लें , मैं विनायकपुर से आया हूँ, इंतज़ार कर लूँगा अगर अभी फ्री नहीं हुए हैं तो" "ठीक है, पूछता हूँ , आप ज़रा खिड़की से किनारे हो कर खड़े हो जाइए , बात होते ही आपको बुला लिया जायेगा", "जी सर" .

थोड़ी-थोड़ी सी धड़कन तेज़ होने लगी थी शायद, सोच रहा था कि आज मुलाकात हो पायेगी या नहीं? मै बार-बार सिक्युरिटी वाले की नज़रों में आने की कोशिश करता रहता था, जिससे उसको याद रहे कि मैं खड़ा हूँ यहाँ..लगभग २ घंटे खड़े होने के बाद जब मैं वापस खिड़की में झाँकने गया तो वो सिक्युरिटी वाला गायब था और कोई और आ बैठा था उसकी सीट पर.."सर मै वो, विनय मिश्रा जी से मिलना था" , "साहब को मैसेज दिया आपने ?" "जी हाँ,आपसे पहले जो 'सर' थे, उन्होंने बोला था वेट करने को" "ठीक है मै देखता हूँ" इतना कह कर वो सामने रखे ढेर में न जाने क्या ढूँढने लग गया, अब तो बहुत गला सूख रहा था  मेरा, सामने पान की चलती फिरती दुकान जिसके पहियों को देख के लगता था कि सदियों से ये चलती फिरती दुकान यहीं पर स्थायी हो गयी है , एक बहुत मोटे से पेट वाला एक व्यक्ति घुसा हुआ बैठा था, जैसे किसी भूसे के ढेर में हाथी घुस गया हो..

"भईय्या पानी है क्या पीने वाला, थोड़ा सा?"  " हाँ-हाँ भईय्या बिलकुल, ये लो" कहकर उसने स्टील का एक लोटा मेरी तरफ बढ़ा दिया, किनारों के अन्दर कत्था छुपा जा रहा था .. मैंने तुरंत ही पूरा लोटा खली कर डाला.. आह्हा.. पानी ठंडा था, गले से होते हुए भूख और गर्मी से जलते हुए पेट तक ठंडक पहुंचा दी उसने."क्या हुआ भैया? बहुत देर से किसी का इन्तजार कर रहे हो?" पान वाले ने पुछा. "हाँ भाई, विनय मिश्रा जी से मिलना था, लेकिन पता चला कि आज प्रेस के मालिक आये हुए हैं इसलिए मिश्रा जी व्यस्त हैं", "अरे वो तो आके कबके चले गए ? चलो कोई बात नहीं, आठ बजे वाले हैं, मिश्रा जी घर पे जाये के पहले हमारा पान ज़रूर खाते हैं, यहीं मिल लेना थोड़ी देर में", इतना सुनते ही मन में फिर से कई सवाल चलने लगे, ऐसे खड़े होके क्या बात करूँगा ? कैसे करूँगा? पता नहीं बात ठीक से करेंगे कि नहीं? 

फिर सोचा जो होगा देखा जायेगा आज, लगभग साल तो होने को आया 'दैनिक ' के लिए पाठकीय भेजते -भेजते , सैकड़ों तो पोस्टकार्ड लिख डाले संपादक के नाम, आज जो भी हो मिल के ही रहूँगा. मन में इष्टदेव कम नाम लिया और दरवाजे की तरफ टक-टकी लगाये देखने लगा. थोड़ी ही देर बाद बड़ा गेट खुला और आगे से चपटी हुयी कार, शायद 'सिएलो' रही होगी, गेट से निकली और एक तरफ जाकर सड़क किनारे रुक गयी, उल्टा ट्रैफिक होने की वजह से शायद कार यहाँ तक नहीं आई. कार में से लगभग ४०-४५ की उम्र का पैंट-शर्ट पहने हुए औसत कद का व्यक्ति निकल के दुकान की तरफ आने के लिए सड़क के दोनों ओर झाँकने लगा I 

"यही तो हैं मिश्रा जी , चिंता न करो यहीं आ रहें हैं" मै तुरंत जेब में रखे रुमाल को ढूंडने लगा, चेहरे पर पसरी घबराहट को समेटने के लिए,वो व्यक्ति, जिसके लिखे लेख और सम्पादकीय मेरी दिनचर्या का हिस्सा थे..मेरे लिए आदर्श...जो स्वयं मेरे लिए श्री कृष्ण के सामान थे  और उनकी लेखनी 'सुदर्शनचक्र' .. वो 'आदर्श' आज मेरे सामने है ..मेरी हृदयगति बढ़ने लगी..  कुछ कदम का फासला चल के वह दुकान पर आ कर खड़े हो गए, एक बार जब नज़रें मिली तो मैंने चेहरे पर कृत्रिम मुस्कान रखकर गर्दन को थोड़ा नीचे की तरफ लचका दिया, जवाब में उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं दिखा. " आइये साहब, ये लीजिये आपके पैकेट, दो बनारसी और एक मीठा गुलकंद वाला" "अभी बनाये हो न ?" "क्या साहेब, कभी आपको लगा है कि बासी दिए हों ? जो आज देंगे? अच्छा साहब ये अजयकुमार हैं आपसे मिलने के लिए आये हैं, दू घंटा से इन्तेजार कर रहे हैं, हम कहे साहब से एहिना मिल लीजियेगा, हमरे पान के बिना थोडेही जाते हैं साहेब घर? 

"जी बताएं.." यह कह कर वह मेरी तरफ मुड़े .. " सर मेरा नाम अजय है , मेरी आपसे फ़ोन पे परसों बात हुयी थी , आपने आज २:३० का समय दिया था,मै सर समय से आ गया था लेकिन आपके यहाँ शायद कोई बड़े सर लोग आये थे , इसलिए मैंने यहीं पर प्रतीक्षा करना उचित समझा" मैंने एक सांस में सब उगल दिया .. लेकिन शायद मुझे लगा कि, मै कुछ भूल गया .. हाँ , दुबे जी का नाम तो बोला ही नहीं .. इससे पहले मैं कुछ और बोलता, वो बोले " लेकिन किसलिए मिलना चाहते थे आप ?" " वो सर..मै सर.. सर मुझे वो दुबे जी ने भेजा था .. उन्होंने आपसे बात की थी " "कौन दुबे जी ?" " जी, वो दुबे जी जिनका रामबाग में 'शहर जाग्रति प्रेस' है ..सरसैयाँ वाले " "मुझे कुछ याद नहीं आ रहा है , खैर आप मिलने का उद्देश्य बताएं" " सर मै एक पत्रकार हूँ , आपके अखबार से एक स्ट्रिंगर की तरह जुड़ना चाहता हूँ , मेरे लेख लगभग हर पाठकीय में 'दैनिक' में छपते हैं .." "अभी फ़िलहाल किसके साथ जुड़े हैं आप?" " जी सर, मैंने कई पत्रिकाओं में अनेकों आर्टिकल भेजे हैं , 'शहर जाग्रति' और 'डूबता सूरज' में मेरे ये लेख छपे हैं सर, और मेरे पास अभी बहुत कुछ खोजी रिपोर्ट हैं " ये कहके मैंने फाइल को खोल के आगे बढ़ाया.. "ठीक है , आप के पास अभी कुछ है  ?" "जी सर ये है , ये मैंने ३ महीने में तैयार की है , सर ये नगर पालिका में फैले भ्रष्टाचार को लेकर है, फोटो भी है सर इसमें, बड़ा खुलासा होगा सर" "ठीक है , दे दीजिये , मै देखता हूँ, आपका नंबर है कोई ? " "जी सर , लिखा है नीचे , बगल का ही है, बात हो जाएगी " "ओके , मैं बताता  हूँ आपको " इतना कह कर वो मुड़  गए और सड़क पार करने के लिए दोनों तरफ ताकने लगे. मेरे दिल की धड़कन अपने चरम पर थी, पेट में हवा चक्कर मार रही थी, भूख -प्यास सबका एहसास मर चुका था , वो पान वाला तो ऐसा लग रहा था कि स्वयं भगवान ने नीचे उतर कर मेरी मदद करी हो, हाथ जोड़ कर धन्यवाद् किया उस पानवाले को, सोचा पैर छु लूँ , थोड़ा आगे भी बढ़ा लेकिन फिर संकोच कर गया. और तेज़ कदमों से बड़ी सड़क की तरफ बढ़ने लगा I 

मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने शायद विश्वविजय कर ली हो , नख से शिख तक आत्मविश्वास से सराबोर, मन-ही-मन मुस्कुराता कब मैं बस पकड़ के अपने मोहल्ले के चौराहे पर उतर गया पता ही नहीं चला? लाईट नहीं आ रही थी पूरे एरिया में , सब लोग घर के बाहर थे अधिकतर , बनवारी की दुकान पर रोज़ की तरह मजमा लगा हुआ था, मैं हमेशा से इस दुकान के पीछे की गली से घर जाता था , जिससे मोहल्ले  के लड़कों का सामना नहीं करना पड़े, जो अक्सर मेरा मजाक उड़ाया करते थे.लेकिन आज मै जान-बूझ के बनवारी की दुकान पर गया."क्या हुआ अज्जू कहाँ से जंग लड़ के आ रहे हो?" "कहीं नहीं , बस बड़ी सड़क गया था " "बड़ी सड़क? इतनी दूर? क्या काम आ गया तुम्हारा  ??" "कुछ नहीं बस ऐसे ही , वो विनय मिश्राजी ने बुलाया था " "विनय मिश्रा, दैनिक वाले? तुम्हे किसलिए बुलाया था ? दैनिक में पोछा मारने?" इतना कह के, दुकान वाले बनवारी को छोड़ कर, सभी लोग हंसने लगे ..मै आगे बढ़ गया , पीछे से आवाज फिर से सुनाई दी "पोछा ठीक से मारा की नहीं ?" मुझे बहुत गुस्सा आ रहा था, मन कर रहा था इन सबको जवाब दे दूँ , लेकिन फिर मैंने अपने मन को समझाया .. इन लोगों को तो समय दिखायेगा , जब मै 'दैनिक' का पत्रकार बन जाऊंगा तो ये सब भी मेरे आगे -पीछे घूमेंगे . तब इन्हें इनकी औकात दिखाऊंगा. सोचते -सोचते घर की सीढियां चढ़ गया I 

खाना सामने होते हुए भी खाना खाने का मन नहीं कर रहा था, पूरा घटनाक्रम मेरी आखों के सामने बार-बार घूम रहा था,मैं सोचे जा रहा था कि शायद नमस्कार की जगह 'हेलो सर' कह के हाथ मिलाया होता तो ..?  विनय जी मेरा आर्टिकल अभी पढ़ रहे होंगे या खाना कहने के बाद पढेंगे ? या फिर हो सकता है कि उन्होंने पढ़ लिए हो और उनको इतना पसंद आया हो कि वो अभी मेरे पी. पी. नंबर पर फ़ोन मिला रहें हों? सोच कर मैं उठने लगा तो माँ ने टोका " खाना तो खा लो , सुबह से न जाने कहाँ घूम रहे हो ? खाना खाके ही कहीं जाना" जैसे तैसे जल्दी -जल्दी खाना खाके , मैं मेरे पास वाले दत्ता अंकल के यहाँ जाने के लिए भागा. पूरे मोहल्ले में लाईट नहीं आ रही थी. दत्ता अंकल के गेट से मैंने उचक कर अन्दर झाँका तो कोई दिखा नहीं.. मैंने इतनी रात को दरवाजा खटखटाना उचित नहीं समझा, और बाहर ही गेट के पास ये सोच के खड़ा हो गया कि, शायद फ़ोन आये तो आंटी को मुझे बुलाने के लिए दूर न जाना पड़े , या हो सकता है रात के कारण वो मना ही कर दें.? इसी कश्मकश में, कब रात का १ बज गया? पता ही नहीं चला ..चौकीदार ने मुझे टोका "क्या अजय भाई , इतनी रात में , यहाँ?" "कुछ नहीं, काम से आया था , जा रहा हूँ" कहकर में अपने घर की ओर चल दिया, पूरी रात सोचते -सोचते बीत गयी I 

सुबह उठ के सबसे पहले 'दैनिक' देखा.. शायद मेरी खबर छप गयी हो , लेकिन पूरे पेपर में कहीं नहीं मिली,  सोचा, शायद अब फ़ोन आएगा , अब आएगा , इसी चक्कर में काम पर न जाके, दत्ता आंटी की सेवा में लग गया , दत्ता आंटी  ने घर के सिलेंडर से लेकर सारी सब्जियां मंगा डालीं मुझसे, लेकिन आज मैं उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानने वाला था. पूरा दिन बीत गया अपने मन को दिलासा देते -देते, लेकिन फ़ोन नहीं आया I 

दो दिन बीत जाने के बाद जब फ़ोन नहीं आया तो मेरे सब्र का बाँध टूट गया , पूजा की अलमारी रखा चिल्लर उठा कर पीसीओ पहुँच गया, "हेलो दैनिक? मिश्रा जी से बात कराइए , विनय मिश्रा जी से " "आप कौन?" "जी मैं , अजय कुमार बोल रहा हूँ विनायकपुर से " फ़ोन पर मधुर धुन सुनाई देने लगी , और मैं मन-ही-मन सेकेण्ड गिनने लगा.."हेलो," "मिश्राजी , मै अजय कुमार बोल रहा हूँ , विनायकपुर से , आपसे मिला था सर , पान की दुकान पे , वो सर मैंने लेख दिए थे आपको कुछ , सर वो छपे नहीं सर , शायद भूल गए थे आप?" " हेलो -हेलो, एक मिनट रुको भाई , वो तुम्हारे लेख नहीं छप सकते, काफी कमियां हैं उसमे" "क्या कमियां हैं सर ? मैंने तो  सारी फोटोएं  भी दी थी ? " "फोटो साफ़ नहीं हैं और कई कमियां हैं, कुछ और दूसरा भेजना देखता हूँ, और ये वापस चाहिए तो लेकर जाना गेट पर गार्ड से ".. इसके बाद  कर टू-टू की आवाज सुनाई देने लगी , मुझे लगा कि इतनी जल्दी फ़ोन कैसे कट गया? मै पी सी ओ वाले पर गरजा "ओ भैया , ये इतना जल्दी कैसे कट गया , ९० सेकण्ड का कॉल होता है , हमें पता है " "अरे भाई कटा नहीं है ,उधर से रख दिया गया है फ़ोन" इतना सुन कर मेरी आखों के सामने अँधेरा सा छा गया, समझ में नहीं आ रहा था क्या करूँ?  सीधे घर आ गया वापस और विचारों में खो गया , आँख कब लग गयी पता ही नहीं चला.

दुसरे दिन से मैंने अपने मन को फिर समझाया , चलो अबकी बार कोई ऐसी सनसनीखेज खबर ढूँढ के निकालूँगा कि विनय जी क्या.. शहर के सारे अखबार और इलेक्ट्रौनिक मीडिया के संपादक मुझे ही ढूँढेंगे. इसी सोच के साथ मैं अपनी 'सेल्समैन' की नौकरी करने के साथ-साथ शहर के ज्वलंत और कब्रनशीं मुद्दों को ढूँढने में लग गया I 

रविवार की सुबह, मैं आज थोड़ा देर से उठा , रात को लौटते हुए देर हो गयी थी. रसोई से कुछ बनने की ख़ुशबू आ रही थी, बहन पूजा कर रही थी, कमरे में धुआं-धुआं सा  फैला हुआ था. मै उठा, और आदतन सीधे घर के छज्जे की तरफ अखबार उठाने के लिए चल पड़ा, ओस से आज अखबार थोड़ा गीला सा हो रखा था, सो मैंने बाथरूम में जाने से पहले पंखे के नीचे अखबार सूखने के लिए रख दिया I 

नहा-धो के निकलने के बाद, जब मेरी नज़र अखबार पर पड़ी तो मेरी धडकनें बढ़ गयीं, मेरी दी गयी खबर की फोटो थी ये तो.. मैंने आनन्-फानन में पन्ने पलटने शुरू कर दिए , ये तो मेरी ही खबर थी.. मगर इसका पहला पन्ना कहाँ हैं जहाँ पर मेरा नाम छपा होगा ? मै चिल्लाया "पेपर का पहला पन्ना कहाँ है? " "अरे वो नीचे वाले गुप्ताजी लेकर चले गए हैं , कोई बड़ी खबर है कह रहे थे" मैं भागा , "गुप्ताजी , वो पेपर दीजिये न , मेरी रिपोर्ट छपी है आज , लाइए दिखता हूँ " " तुम्हारी रिपोर्ट ? कहाँ छपी है? 'दैनिक वालों  ने बहुत बड़ा खुलासा किया है , इसलिए मै 'दैनिक ' लाया पढने के लिए" ये कह कर उन्होंने मुझे पेपर थमा दिया I 

पेपर देखते ही मेरे पैरों तले ज़मीन निकल गयी.. मै जड़वत हो गया वहीँ-के-वहीँ , कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था , आखिर विनय जी ऐसा क्यूँ किया ? क्या होता अगर वो मेरा नाम छाप देते इस खबर के साथ ? उनका क्या चला जाता अगर मेरी खबर को मेरा ही नाम दे देते ?? वो तो हमेशा ही अपने लेखों में नैतिकता एवं सार्थक पत्रकारिता की बातें करते हैं .. अभी पिछले ही संपादकीय में उन्होंने ये कहा था कि पत्रकार तो समाज एवं एवं सत्य का प्रहरी होता है.. वास्तविक पत्रकार वो होता है जिसके लिए अपने देश और समाज के प्रति जूनून और जस्बा होता है.फिर क्यूँ वो अपने ही शब्दों से फिर गए ? वो तो मेरे आदर्श थे .. तो फिर क्या अंतर हुआ अवसरवादी नेताओं और संपादकों में ?

मेरे आत्मसम्मान और वजूद की लड़ाई में मैं हार चुका था अब, पेपर को हाथ में लेकर घर की सीढियां चढ़ता जा रहा था, आँखों से बहता हुआ नमकीन पानी फिर से होठों  को खारा कर रहा था, आज पता नहीं क्यूँ अच्छा लग रहा था ये नमक... आदत सी जो पड़ चुकी थी ..... 


-Prashant Gupta 

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